मैं हूँ अनिरुद्ध शर्मा, पेशे से पत्रकार, दिल्ली के एक अखबार चीफ रिपोर्टर हूं, हिन्दी अखबार अमर उजाला, दैनिक भास्कर, राष्ट्रीय सहारा के बाद एक बार फिर आजकल दैनिक भास्कर में काम करता हूं।
पैदाइश वृन्दावन की है, शुरुआती पढाई भी वृन्दावन में हुई, आठवीं तक (१९८७) बस स्टैंड के बगल में सुवटी देवी अग्रवाल जूनियर हाई स्कूल से, फिर बारहवीं तक (१९९१) हजारीमल सोमानी नगर पालिका इंटर कॉलेज से, बीएससी (२००४) मथुरा के बीएसए कॉलेज (आगरा विश्वविद्यालय) से किया। इंटर से लेकर बीएससी तक हर साल मेडिकल में जाने के लिए प्रयत्न किया पर कहीं बात नहीं बनी, हर भारतीय की तरह मैंने भी ग्रेजुएट करते ही सिविल सेवा परीक्षा दी और प्रीलिम्स तो आसन था पर मैन में पहले ही प्रयास में अपनी औकात पता चल गयी।
पत्रकारिता में आने से पहले कई क्षेत्रों में प्रयास किया। दिल्ली आने के पहले पत्रकारिता में अच्छे प्रवेश के लिए मैंने वृन्दावन, मथुरा और आगरा में भी धक्के खाये। सच तो ये है कि वृन्दावन में अपने मंदिर में होने वाले सालाना उत्सव की विज्ञप्ति लिखने और उनके अगले दिन अखबारों में ज्यों के त्यों छप जाने से रुझान बढ़ा। पहली बार मैंने १९८९ (इस साल मैंने दसवी पास की थी) में एक खबरों भेजी जो अगले दिन छपी देखी। फिर तो हर साल उत्सव पर लिखने का क्रम बढ़ता गया। कई बार तो कवरेज़ इतनी हुई जितनी वृन्दावन में किसी बड़े पर्व की भी क्या होती होगी। सन १९९५ में एक रिकॉर्ड बन गया, अख़बारों में मंदिर के एक महीने के उत्सव के दौरान ७४ आइटम प्रकाशित हुए। तमाम फोटो भी छपे थे। इस बार उत्सव संपन्न होने के बाद ही चस्का लगा रहा। कई अखबार पढने का शौक चढ़ा, उनमें वह स्पेस तलाशने लगा जहाँ मैं कुछ लिख सकता था। वृन्दावन से ही आगरा व दिल्ली के अखबारों को पोस्ट से लेख भेजने शुरू कर दिए। संयोग से सभी छपते गए। एमएससी में दाखिला मिला नहीं, वृन्दावन में कोई नौकरी भी नहीं मिली सो दिल्ली चला आया।
दिल्ली पहुँच कर भी शुरू में खास सफलता नहीं मिली। दिल्ली में शुरुआत में भिकाजी कामा पैलेस की एक कंपनी में ऑनलाइन अकाउन्ट्स सीखा और वही नौकरी करने लगा, शाम को केजी मार्ग पर भारतीय विद्या भवन में पी जी डिप्लोमा इन बिजनस मैनेजमेंट की क्लास अटेंड करता, रात को विश्वास नगर में घर पहुँचता। बस का हर सफ़र बहुत लम्बा था सो प्रेमचंद की कहानियाँ व उपन्यास की आदत पड़ गयी। इनदिनों से पहले मैंने कभी हिंदी साहित्य में कुछ भी इतने ध्यान व इत्मीनान से नहीं पढ़ा था। इन कहानियों ने मेरी सोच स्वभाव को बिलकुल बदल कर रख दिया। हिंदी के बहुत सारे शब्द भी इसे दौरान सीखे। यही वक्त था कि एक बार तो मैं कहानीकार बनने की सोचने लगा लेकिन कुछ ही दिनों में समझ आ गया कि ये मेरे बस की बात नहीं है।
घर में रात को पढाई कम लेख ज्यादा लिखता। दफ्तर के लंच में उन्हें पोस्ट करता। ज्यादातर आर्टिकिल हफ्ते दस दिन में छप जाते। करीब महीने भर में उनका चेक आता। कभी छुट्टी होती तो अख़बारों के दफ्तरों में संपादकों से मिलने जाता कोई नया काम ले आता। काम समय पर अच्छे क्वालिटी का उपलब्ध कराने की वजह से अख़बारों में मेरी कुछ पूछ बढ़ी। मार्च १९९८ में के ऐसा दिन आया कि एक ही दिन में कई अख़बारों में फीचर पेज के कवर पर मेरी ही स्टोरी छपी। उस एक दिन का मेरा मेहनताना २५०० रूपये बना। तब मेरी बिजनस व एकाउन्ट्स में दिलचस्पी कम होने लगी और मई १९९८ में मैंने भिकाजी वाली नौकरी छोड़ दी। भारतीय विद्या भवन में भी कोर्स बदल लिया, अब मैं जर्नलिज्म का कोर्स करने लगा लेकिन काम की व्यस्तता इतनी बढ़ गयी कि कोर्स पूरा नहीं कर पाया। बाद में मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से जर्नलिज्म का कोर्स शुरू किया पर वो भी अधूरा रह गया। फ्री लान्सिंग में मुझे बड़ा नाम मिला, अकाउन्ट्स वाली नौकरी की तुलना में अब मैं करीब दोगुना कमाने लगा था। लेकिन कई बार बड़ी बेबसी के दिन भी आये। कभी-कभी चेक २००-२५० रूपये के भी आते और बैंक में जमा करने में कुछ भूल हो जाये और बैंक में दो-तीन दिन की छुट्टी हो गयी हो तो खाने के भी लाले पड़ जाते। कई बार तो दिल्ली से वृन्दावन जाने के लिए इएमयू की टिकट के २५ रुपये भी नहीं होते थे। होली, दिवाली जैसे मौकों पर भी मैं कई दफा वृन्दावन नहीं जा पाया। मम्मी वृन्दावन से दिल्ली मेरे पड़ोस के एसटीडी बूथ पर बारबार फोन करती। कभी घर में होता तो बात हो जाती, कभी-कभी बाद में केवल खबर मिलती की मम्मी का फोन आया था। मम्मी के ज्यादातर फोन सुबह आते ये बताने के लिए की आज अखबार में तुम्हारा लेख छपा है। बहुत अच्छा लगता था। लेकिन शुरुआत में मम्मी बाबूजी को मेरे पत्रकारिता में आने का ख्याल पसंद नहीं था। उनका आशय था साइंस पढ़ी है तो उसी दिशा में कुछ करना चाहिए।
इस बात का असर था कि दिल्ली में मैंने शुरुआत में साइंस पर सबसे ज्यादा लिखा, मैं इस बारे में जानकारी जुटाने अक्सर अमेरिकन सेंटर या ब्रिटिश काउंसिल जाया करता, तमाम जर्नल पढने व नया मैटर छांटने में बहुत समय लगता था। तब मेरे पास न मोबाइल फोन था न एटीएम से कभी भी रूपये निकाल लेने की आसान सुविधा उपलब्ध थी। इन्टरनेट आ चुका था लेकिन साइबर केफे में ४०-५० रूपये प्रति घंटे के हिसाब से इस्तेमाल हो सकता था। स्पीड भी आज की तुलना में धीमी थी। मैंने १९९७ में पहली बार इन्टरनेट का इस्तेमाल किया। बड़ा जोरदार अनुभव रहा। बहुत कम मेहनत में ढेरों जानकारियाँ मिल जाती। लेकिन प्रमाणिकता पर जरूर शक होता था।
चांदनी चौक, शाहदरा व सरोजनी नगर की दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी और मंडी हाउस का साहित्य अकादमी लाइब्रेरी भी मेरा अड्डा बना। शाम को मंडी हाउस के सभागारों में नाटक, शास्त्रीय गायन, वादन के कार्यक्रमों में भी बड़ा रंग जमा। इण्डिया हैबीटाट सेंटर व इण्डिया इंटरनेशनल सेंटर में गोष्ठियां अटेंड करने लगा। आम दिल्ली वालों की इन चीजों में कम दिलचस्पी पर बहुत आश्चर्य होता था। तमाम नामधारी लोगों से ऐसे ही कार्यक्रमों में बात मुलाकात हुई। हम उम्र लेखकों से भी यहाँ संपर्क बढ़ा। अखबार के दफ्तरों में खासकर हिन्दुस्तान व राष्ट्रीय सहारा में मुझे उन्ही के यहाँ बैठकर लिखने का मौका मिल जाया करता था।
बचपन से रेडियो सुनना मेरा सबसे बड़ा शौक है। यहाँ तक कि पढ़ने वक्त, लिखने वक्त मैं रेडियो बैकग्राऊंड म्यूजिक की तरह लगातार सुनता रहता था। दिल्ली आया तो अपना रेडियो भी साथ लाया, सुबह सुबह आकाशवाणी से रामचरित मानस से तो मैं आज तक सुन रहा हूँ। एफएम तब आज की तरह न था, न रेडियो इतना सुना जाता था। रेडियो का जिक्र मैंने इसलिए किया क्योंकि तब केबल टीवी बहुत पॉपुलर हो चुके थे, दूरदर्शन की मांग काम होने लगी थी, रेडियो घरों में बेचारा बन गया था। गाने सुनने की वजह से विविध भारती जैसे रेडियो स्टेशन रिक्शे, ठेले वाले, पान की दुकान पर सुनते हुए जरूर देखा जाता था पर घरों में नहीं। रेडियो के शौक ने मुझे एक दिन आकाशवाणी पहुंचा दिया, यहाँ मुझे खूब काम मिला। मैंने कई यादगार रेडियो रूपक बनाये, कुछ वार्ताएं भी की पर आवाज़ रेडियोजेनिक न होने के चलते मैंने ऐसे प्रोग्राम नहीं लिए जिनमे मुझे खुद ही बोलना पड़े। रेडियो ने मुझे नाम तो ज्यादा नहीं दिया लेकिन हर बार मुझे बहुत मज़ा आया।
दिल्ली में मेरी दूसरी पहचान वृन्दावन के बारे में लिखे लेखों की वजह से मिली। इस सम्बन्ध में वृन्दावन के कुछ ख़ास लोगों व संस्थान जैसे बाबूजी और उनका वृन्दावन शोध संस्थान, प्रो गोविन्द शर्मा, डा कैलाश चन्द्र भाटिया, डा शरण बिहारी गोस्वामी, अखंडानन्द लाइब्रेरी, मथुरा म्यूजियम, चैतन्य प्रेम संस्थान, वृन्दावन के कुछ फोटो स्टूडियो को मैं आजीवन नहीं भुला पाऊंगा। साइंस व वृन्दावन के बाद संस्कृति, शिक्षा, समसामयिक सन्दर्भ पर मैंने सबसे ज्यादा लिखा। कमाल की बात ये है कि इनमें से कुछ भी मेरे पढ़े विषय नहीं थे।
सितम्बर २००० में एक दिन मैं अमर उजाला में काम के सिलसिले में गया। वहां मेरी मुलाकात संपादक राजेश रपरिया से हुई। मैंने उनसे मिलने के लिए पर्ची पर अनिरुद्ध शर्मा लिख कर दिया लेकिन मैं जैसे ही उनके केबिन में घुसा तो वहां मौजूद उदयन शर्मा ने कहा तो तुम लालजी हो। दरअसल लालजी मेरा घरेलू नाम है और हर लेख में अनिरुद्ध शर्मा के बाद मैं लालजी जरूर लिखता था। मुझे उनके मुंह से लालजी सुनना इसलिए अच्छा लगा क्योंकि इसका सीधा सा मतलब था कि वे मेरे नाम काम से अच्छी तरह परिचित हैं। दोनों ने काम पर कोई बात करने कि बजाए सिर्फ सीधा सा सवाल किया फ्री लान्सिंग की बात छोडो नौकरी करोगे। मैंने कहा जरूर। ठीक है तो कल से आ जाना। अगले दिन से मेरी नौकरी शुरू हो गयी। यहाँ मेरा बैंक एकाउंट फिर से खुला और नवम्बर २००० में मैंने पहली बार एटीएम से रूपये निकाले। मुझे करियर पेज पर काम दिया गया। शुरुआत में अनुवाद का काम ज्यादा था। कुछ महीने बाद रिपोर्टिंग का मौका मिला। मुझे हफ्ते के सबसे चर्चित मुद्दे पर पक्ष व विपक्ष में दो लोगों की राय को बातचीत के आधार पर सम्पादकीय पर लिखना पड़ता था । इस कॉलम में मैंने अंतर्राष्ट्रीय मसलों, देश के राजनितिक मसलों पर देश के शीर्ष बुद्धिजीवियों से बातचीत की। धर्म, खेल पेज पर भी योगदान दिया। २००३ में मुझे अमर उजाला के दरिया गंज ऑफिस पहली बार भेजा गया। मुझे शुरू में विधान सभा चुनाव की कवरेज का मौका मिला, फिर एजुकेशन बीट मिल गयी। २००४ में मैंने पहली बार विधिवत तरीके से लोकसभा आम चुनाव की कवरेज की। एजुकेशन बीट पर मैंने खूब काम किया। २००६ में मुझे दैनिक भास्कर से नौकरी का ऑफर मिला और मैंने अमर उजाला की नौकरी छोड़ दी। यहाँ मैंने काम खूब किया पर छह साल में जैसी तरक्की व वेतन होना चाहिए नहीं मिला। हालाँकि मेरे नौकरी छोड़ते ही वहां हालात अचानक सुधरे और मुझे कई बार नौकरी छोड़ने का अफ़सोस भी होता। २००८ में मुझे राष्ट्रीय सहारा से ऑफर मिला और मैं वहां प्रिंसिपल करसपोंडेंट बन गया। करीब ग्यारह महीने के अंदर ही मुझे फिर से भास्कर का ऑफर मिला और मैं वापस चला आया।
मेरा जन्म २५ नवम्बर १९७४ सुबह ८ बजकर ४६ मिनट पर सीएफसी अस्पताल में हुआ, इस अस्पताल के ठीक सामने भी हमारा एक घर था, उसका नाम था शीतल निवास, हिन्दी तिथि के हिसाब से मेरा जन्मदिन जिस दिन हुआ वह दिन देवउठनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। कार्तिक में हमारे मंदिर निम्बार्क कोट में सालाना समारोह होता है, इसलिए मम्मी मुझे लेकर करीब एक हफ्ते तक शीतल निवास में ही रहीं। उस साल वृन्दावन में हमारे मंदिर के उत्सव का विरोध हुआ। एक अलग से सवारी निकली लेकिन आमलोगों ने हमारी सवारी का समर्थन किया।